कविताएँ

Saturday, June 04, 2005

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देहरादून में अखिल भारतीय क्रान्तिकारी सम्मेलन और सरल जी की कविता का जादू—


देहरादून में अखिल भारतीय क्रान्तिकारी सम्मेलन आयोजित था। भारत के क्रान्तिकारयों के अतिरिक्त विदेशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय क्रान्तिकारी भी सम्मेलन में उपस्थित थे। सम्मेलन तीन दिन चलने वाला था। वक्ताओं में एक से बढ़कर एक धुरंधर वक्ता वहाँ थे। कुछ लोग चाहते थे कि सरल जी का कविता पाठ रखा जाए। सम्मेलन के अध्यक्ष कामरेड कामेश्वर राव के पास जब प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने मना कर दिया। बहुत दबाव पढ़ने पर वे बोले— ''सरल जी के कविता पाठ की एक ही सूरत हो सकती है और वह यह है कि सम्मेलन के प्रारम्भ में जो राष्ट्र–गीत गाया जाएगा, उसके स्थान पर इनको एक छोटी कविता पढ़ने का अवसर दे दिया जाय।'' यह विचार निश्चित हो गया। सरल जी ने कहा—
''कविता में चार पद हैं लेकिन समयाभाव के कारण मैं उसका एक पद ही पढ़ूंगा .......जब पहला पद समाप्त हो गया तो अध्यक्ष महोदय ने स्वयं कहा– पूरी कविता सुनाइए..... मैंने पूरी कविता सुनाई जो इस प्रकार है''—
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  • मैं अमर शहीदों का चारण
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मैं अमर शहीदों का चारण
उनके गुण गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
मैं उसे चुकाया करता हूँ।
यह सच है, याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।
वे अगर न होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता,
जीवन ऍसा बोझा होता जो हमसे नहीं सहा जाता,
यह सच है दाग गुलामी के उनने लोहू सो धोए हैं,
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।
इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के
मैं भाव जगाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके यश गाया करता हूँ।
यह सच उनके जीवन में भी रंगीन बहारें आई थीं,
जीवन की स्वप्निल निधियाँ भी उनने जीवन में पाई थीं,
पर, माँ के आँसू लख उनने सब सरस फुहारें लौटा दीं,
काँटों के पथ का वरण किया, रंगीन बहारें लौटा दीं।
उनने धरती की सेवा के वादे न किए लम्बे—चौड़े,
माँ के अर्चन हित फूल नहीं, वे निज मस्तक लेकर दौड़े,
भारत का खून नहीं पतला, वे खून बहा कर दिखा गए,
जग के इतिहासों में अपनी गौरव—गाथाएँ लिखा गए।
उन गाथाओं से सर्दखून को
मैं गरमाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण
उनके यश गाया करता हूँ।
है अमर शहीदों की पूजा, हर एक राष्ट्र की परंपरा
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त—बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।
इसलिए राष्ट्र—कर्त्तव्य, शहीदों का समुचित सम्मान करे,
मस्तक देने वाले लोगों पर वह युग—युग अभिमान करे,
होता है ऍसा नहीं जहाँ, वह राष्ट्र नहीं टिक पाता है,
आजादी खण्डित हो जाती, सम्मान सभी बिक जाता है।
यह धर्म—कर्म यह मर्म
सभी को मैं समझाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण
उनके यश गाया करता हूँ।
पूजे न शहीद गए तो फिर, यह पंथ कौन अपनाएगा?
तोपों के मुँह से कौन अकड़ अपनी छातियाँ अड़ाएगा?
चूमेगा फन्दे कौन, गोलियाँ कौन वक्ष पर खाएगा?
अपने हाथों अपने मस्तक फिर आगे कौन बढ़ाएगा?
पूजे न शहीद गए तो फिर आजादी कौन बचाएगा?
फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचाएगा?
पूजे न शहीद गए तो फिर यह बीज कहाँ से आएगा?
धरती को माँ कह कर, मिट्टी माथे से कौन लगाएगा?
मैं चौराहे—चौराहे पर
ये प्रश्न उठाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके यश गाया करता हूँ।
जो कर्ज ने खाया है, मैं चुकाया करता हूँ।
***

-श्रीकृष्ण सरल
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